Rig vaidik kaal in hindi

ऋग्वैदिक काल

ऋग्वैदिक काल 1500  से 1000 ईसा पूर्व की जानकारी का स्त्रोत ऋग्वेद है| इस समय वैदिक आर्य अस्थाई जीवन व्यतीत करते थे, या एक ग्रामीण व्यवस्था के अंग थे| एक यूनिट क्षेत्र का निर्माण किया गया है, इस क्षेत्र में प्रमुख सात नदियां प्रवाहित है ये नदियाँ है- सिन्धु, रावी, चिनाव, सतलुज, झेलम, ब्यास तथा सरस्वती|

ऋग्वेद में इस क्षेत्र को ब्रह्मावर्त भी कहा गया है| ऋग्वेद में हिमालय की छोटी को मुजवंत कहा गया है| ऋग्वेद में शर्ध,व्रत तथा गण सैनिक इकाईयां है, पथि-कृत का प्रयोग अग्नि देव के लिए किया गया है| इस काल में राजा की कोई नियमित सेन नहीं थी| 

सामजिक सरचना 

रिग वैदिक सामाजिक संरचना का आधार परिवार था| परिवार पितृसत्तात्मक था परिवार के मुख्य को कूलप कहा जाता था|जिसे अन्य सदस्यों से अधिक महत्व प्राप्त होता है|

पितृ प्रधान समाज में महिलाओं को उचित सम्मान दिया जाता थामहिलाएं अधिक स्वच्छन्द तथा स्वतंत्र जीवन यापन करती थी| उन्हें पारिवारिक जीवन में यथोचित महत्व मिलता था| 

महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने तथा राजनीतिकसंस्थाओं में शामिल होने की स्वतन्त्रता भी प्राप्त थी। ऋग्वैदिक काल में अपाला,सिकता, घोषा,विश्ववारा, लोपामुद्रा जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख है| 

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ऋग्वैदिक समाज एक कबीलाई समाज था।ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिह्न दिखाईऋग्वेद के

पुरुषसूक्तमें वर्गों-ब्राह्मण, क्षत्रिय,क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कीआर्थिक चर्चा मिलती है, किन्तु तब यह विभाजन जन्ममूलकन होकर कर्ममूलक था।

इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण परम-पुरुषमुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जाँघों से एवं शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ है। 

ऋग्वेद में कुल 10 मंडल हैं। ऋग्वेद के ऋषियों में प्रमुख गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव,अत्रि,भारद्वाज और वशिष्ठ को क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें मण्डल का रचनाकार माना जाता है। ऋग्वेद का आठवाँ मण्डल कण्व और अंगिरस वंश को समर्पित है।नवे मण्डल में सोम की चर्चा है।गाय को अघन्या (न मारने-योग्य) माना जाता था। दस्यु की चर्चा ऋग्वेद में अदेवयु (देवताओं में श्रद्धा नहीं रखने वाले),अब्रह्मन (वेदों को न मानने वाले), अयज्वन‘ (यज्ञ नहीं करने वाले) इत्यादि के रूप में की गयी है| 

ऋग्वैदिक समाज में संस्कारों को महत्व दिया जाता था| कन्या विवाह मंत्रोचार के साथ सम्पन्न होता था| लम्बे समय तक विवाह न करने वाली कन्याओं को अमाजू कहा जाता था| बहुपत्नी प्रथा अनुपस्थित थी| विवाह के अवसर पर वर को उपहार देने की प्रथा थी, लेकिन इसे दहेज नही कहा जा सकता| कन्या विदाई के समय द्रव्य दिया जाता था, उसे वहतु कहा जाता था| 

बाल विवाह की प्रथा नहीं थी| समाज में सती प्रथा का कोई अस्तित्व नहीं था| विधवाओं की पुनर्विवाह की स्वीकृति थी| सोम आर्यों का प्रमुख पेय पदार्थ था| जिसे मुख्य आयोजनों के दौरान परोसा जाता था| दूध तथा दूध से बने व्यनजों की चर्चा भी मिलती है| 

स्त्री तथा पुरुष आभूषणों के शौकीन से सोने चांदी तांबा तथा बहुमूल्य धातुओं के आभूषण प्रयोग में लाए जाते थे स्त्रियां साड़ी पुरुष धोती तथा अंगोछे का उपयोग परिधान के रूप में किया करते थे| ऋग्वैदिक आर्यों के मनोरंजन के साधन, संगीत, नृत्य, शिकार. घुडदौड तथा चौपड़ का खेल था| की अवसरों पर प्रतिस्पर्धा का आयोजन भी किया जाता था| 

आर्यों के परिधानों को तीन भागों – वास (शरीर के उपर धारण किया जाने वाला मुख्य वस्त्र ), अधिवास (कमर के निचे धारण किया जाने वाला मुख्य वस्त्र)तथा उष्णीय (पगड़ी) में बांटा जाता है| परिधान के निचे पहने जाने वाले अधोवस्त्र को नीवी कहा जाता था| 

आर्थिक जीवन 

आर्यों की जीवन भौतिकता से प्रेरित था| अर्थव्यवस्था में पशुओं का महत्व सर्वाधिक था| गाय के लिए युद्धों (गवेष्ण) का विवरण ऋग्वेद में मिलता है| सम्पति की गणना रयी अर्थात मवेशियों के रूप में होती थी| गाय के अतिरिक्त बकरिया (अजा) भेड़ (अवि) तथा घोड़े भी पाले जाते थे|

पशुपालन की तुलना में कृषि का महत्व नगण्य था| कृषि के लिए उर्दर,धान्य तथा वपन्ति जैसे शब्दों का प्रयोग होता था| ऋग्वेद में उर्वरा हुते हुए खेत को कहा जाता था| खिल्य पशुचारण योग्य भूमि या चारागाह को, सीर हल की सृनी फसल काटने के यंत्र (हंसिया) को तथा करिष शब्द का प्रयोग गोबर खाद के लिए होता था| अवट शब्द का प्रयोग कृपों के लिए होता था| सीता शब्द का प्रयोग हल से बनी नालियों के लिए था| ऋग्वेद में यव (जौ) तथा धान्य की चर्चा है अर्थात ऋग्वैदिक आर्य जौ की खेती पर अधिक ध्यान देते थे| वस्तुत: इस समय की कृषि विजित लोगों का व्यवसाय मानी गयी| 

यायावर जीवन व्यतीत करने के कारण भी ऋग्वैदिक आर्यों ने कृषि पर अधिक ध्यान नही दिया| निर्वाह अर्थव्यव्स्थाओं में कृषि के साथ वाणिज्यिक व्यापार को भी अधिक महत्व नहीं मिला था| वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी| निष्क एवं शतमान नामक सिक्कों का उल्लेख मिलता है| 

ऋग्वैदिककालीन नदियाँ 

प्राचीन नाम               आधुनिक नदियाँ 

कुभ्र                          कुर्रम 

कुभा                         काबुल 

वितस्ता                      झेलम 

अस्किनी                    चिनाब 

पुरुषणी                     रावी 

शातुद्री                      सतलुज 

विपाशा                     व्यास 

सदानीरा                    गंडक 

दृशद्विति                    घघर 

गोमती                       गोमल 

सुव्स्तु                        स्वात 

सुषोमा                      सोहन 

मरुद्व्वद्धा                 मरूवर्मन 

ऋग्वेद में कुछ व्यवसायियों के नाम भी मिलते है: जैसे – तक्ष्ण (बढई), बेकनाट(सूदखोर), कर्मकार, स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलासा) आदि| ऋग्वेद समुद्र शब्द मुक्यत: जलराशि का वाचक है| विनिमय के माध्यम के रूप में निष्क का भी उल्लेख हुआ है| व्यापारियों को ‘पणी’ कहा जाता था| बेकनाट (सूदखोर) वे ऋणदाता थे, जो बहुत अधिक ब्याज लेते थे| ऋग्वेद में सर्वाधिक पवित्र नदी के रूप में सरस्वती (नदीतम) का वर्णन हुआ है, तथा उषा,अदिति, सूर्या जैसी देवियों का भी उल्लेख है| 

सत्यमेव जयते मुंडकोपनिषद से तथा असतो मा सद गमय ऋग्वेद से लिया गया है| गायंत्री मंत्र का उल्लेख भी ऋग्वेद के तीसरे मंडल में मिलता है| 

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