History of Kangra District in Hindi

जिले के रूप में गठन – 1 नवबर, 1966 जिला मुख्यालय – धर्मशाला

जनसंख्या घनत्व – 263 (2011 में) साक्षरता – 86.49% (2011 में)

कुल क्षेत्रफल – 5739 वर्ग किलोमीटर लिंगानुपात – 1013 (2011 में)

जनसंख्या – 15,07,223 (2011) विकास खंड– 15

कुल गाँव – 3868 (आबाद गाँव- 3619) ग्राम पंचायतें – 760

शिशु लिंगानुपात – 873 (2011 में)

1.भौगोलिक स्थिति – कांगड़ा जिला हिमाचल प्रदेश और उतर-पश्चिम में 32°40’ से 32°25’ उतरी अंक्षास तथा 70°35’ से 77°05’ पूर्वी देशांतर के बिच स्थित है| कांगड़ा के दक्षिण में उना, हमीरपुर, और मंडी जिले स्थित है| इसके पूर्व में कुल्लू और लाहौल-स्पीती और उतर में चम्बा तथा पश्चिम में पंजाब राज्य की सीमाएं लगती है| 

2.पर्वत श्रृंखलाएं – धौलाधार पर्वत श्रृंखला कुल्लू से होते हुए भंगाल क्षेत्र को पार कर कांगड़ा जिले में प्रवेश करती है| यह चम्बा के हाथीधार के समांतर चलती है|  

3. नदियाँ-व्यास नदी रोहतांग से निकलकर कुल्लू, मंडी के बाद पालमपुर तहसील के संघोल से कांगड़ा में प्रवेश करती है। व्यास नदी नदौन से होते हुए मिरथल के पास काँगड़ा को छोड़कर पंजाब (गुरदासपुर) में प्रवेश करती है। बैजनाथ की पहाड़ियों में निकलने वाली बिनवा नदी संघोल में ब्यास में मिलती है। न्यूगल नदी सुजानपुर टिहरा के पास ब्यास में मिलती है। देहर और चक्की खड्ड काँगड़ा और पंजाब की सीमा बनाते हैं।

4. झीलें-कांगड़ा में डल, करेरी (प्राकृतिक) एवं पोंग (कृत्रिम) झीलें स्थित हैं।

(ii) इतिहास-काँगड़ा जिले के इतिहास के लिए हमें काँगड़ा रियासत, गुलेर रियासत, नूरपुर रियासत, सिब्बा, दत्तारपुर, बंगाहर रियासतों का अध्ययन करना पड़ेगा। इन सबमें कांगड़ा रियासत सबसे प्रमुख है। जसवां और कुटलेहर रियासत हम ऊना जिले के अंतर्गत पड़ेंगे।

(क) काँगड़ा रियासत

1.काँगड़ा रियासत का प्राचीन इतिहास – काँगड़ा प्राचीन काल में त्रिगर्त के नाम से मशहूर था जिसकी स्थापना महाभारत युद्ध  से पूर्व मानी जाती है। इस रियासत की स्थापना भूमि चंद ने की थी, जिसकी राजधानी मुल्तान (पाकिस्तान) थी। इस वंश (पीढ़ी) के 234वें राजा सुशर्मा ने जालंधर त्रिगर्त के कांगड़ा में किले की स्थापना कर उसको अपनी राजधानी बनाया।

त्रिगर्त का अर्थ-त्रिगर्त का शाब्दिक अर्थ तीन नदियों रावी, व्यास और सतलुज के बीच फैले भू-भाग से है। बाणगंगा, कुराली और न्यूगल के संगम स्थल को भी त्रिगर्त कहा जाता है।

जालंधर-पद्मपुराण और कनिंघम के अनुसार जालंधर नाम दानव जालंधर से लिया गया है जिसको भगवान शिव ने मारा था।

राजधानी-त्रिगर्त रियासत की राजधानी नगरकोट (वर्तमान काँगड़ा शहर) थी जिसे भीमकोट, भीम नगर और सुशर्मापुर के नाम से भी जाना जाता था। इस शहर की स्थापना सुशर्मा ने की थी। महमूद गजनवी के दरबारी उत्वी ने अपनी पुस्तक में इसे भीमनगर, फरिश्ता ने भीमकोट, अलबरूनी ने नगरकोट की संज्ञा दी थी।

पुस्तकों में विवरण-त्रिगर्त नाम महाभारत, पुराणों और राजतरंगिणी में मिलता है। पाणिनि के अष्टाध्यायी में त्रिगर्त को आयुधजीवी संघ कहा गया है।

महाभारत काल-महाभारत के युद्ध में सुशर्मा ने कौरवों का पक्ष लिया था। उसने मत्स्य देश के राजा विराट पर आक्रमण भी किया था।

काँगड़ा का अर्थ-काँगड़ा का अर्थ है कान का गढ़। भगवान शिव ने जब जालंधर राक्षस को मारा तो उसके कान जिस जगह गिरे वही स्थान कालांतर में काँगड़ा कहलाया।

यूरोपीय यात्री-1615 ई. में थॉमस कोरयाट, 1666 ई. में थेवेनोट, 1783 में फॉस्टर और 1832 ई. में विलियम मूरॉफ्ट ने कांगड़ा की यात्रा की। राजतरंगिणी के अनुसार 470 ई. में श्रेष्ठ सेना, 520 ई. में प्रवर सेना (दोनों कश्मीर के राजा) ने त्रिगर्त पर आक्रमण कर उसे जीता था। ह्वेनसांग 635 ई. में कांगड़ा के राजा उतितों (उदिमा) के मेहमान बनकर काँगड़ा आये। वह पुनः 643 ई. में काँगड़ा आये। कांगड़ा के राजा पृथ्वी चंद (883-903) ने कश्मीर के राजा शंकर बर्मन के विरुद्ध युद्ध किया था।

2. मध्यकालीन इतिहास

महमूद गजनवी-महमूद गजनवी ने 1009 ई. में औहिंद के राजा आनंदपाल और उसके पुत्र ब्रह्मपाल को हराकर काँगड़ा पर आक्रमण किया। उस समय काँगड़ा का राजा जगदीश चंद्र था। काँगड़ा किला 1043 ई. तक तुर्कों के कब्जे में रहा। 1043 ई. में काँगड़ा किला तोमर राजाओं ने आजाद करवाया। परन्तु वह 1051-52 ई. में पुनः तुर्की के कब्जे में चला गया। 1060 ई. में काँगड़ा राजाओं ने पुनः काँगड़ा किले पर कब्जा कर लिया।1170 ई. में पदमचन्द और पूर्वचन्द (जसवान राज्य का संस्थापक) ने काँगड़ा पर राज किया। 

तुगलक-पृथ्वीचंद (1330 ई.) मुहम्मद बिन तुगलक के 1337 ई. के काँगड़ा आक्रमण के समय काँगड़ा का राजा था। रूपचंद का नाम मानिकचंद’ के नाटक ‘धर्मचंद्र नाटक’ में भी मिला है, जो 1562 ई. के आसपास लिखा गया था। फिरोजशाह तुगलक ज्वालामुखी मंदिर से 1300 पुस्तकें फ़ारसी में अनुवाद के लिए ले गया| इन पुस्तकों का फारसी में अनुवाद में  इन पुस्तकों का फारसी में दलील-ए-फिरोजशाही’ के नाम से अनुवाद ‘इज्जुद्दीन खालिदखानी’ ने किया| फिरोजशाह तुगलक के पुत्र नारुहान ने 1389 ई. में भागकर नगरकोट पहाड़ियों में शरण ली थी तब काँगड़ा  का राजा सागर चंद (1375 ई.) था।

तैमूरलंग-कांगड़ा के राजा मेघचंद, (1390 ई.), के समय 1398 ई. में तैमूर लंग ने शिवालिक की पहाड़ियों को लूटा था। वर्ष 1399 ई. में वापसी में तैमूरलंग के हाथों धमेरी (नूरपुर) को लूटा गया। हण्डूर (नालागढ़) के राजा आलमचंद ने तैमूरलंग की मदद की थी| 

हरिचंद-I (1405 ई.) और कर्मचंद-हरिचंद-I एक बार शिकार के लिए हडसर (गुलेर) गये जहाँ वे अपने सैनिकों से बिछुड़ गुएऔर कई दिन तल नहीं मिले| मरा समझकर उनके भाई कर्मचन्द को राजा बना दिया गया| हरिचंद को 21 दिन बाद एक व्यापारी राहगीर ने खोजा| हरिचंद को अपने भाई के राजा बनने का समाचार मिला तो उन्होंने हरिपुर में किला व राजधानी बनाकर गुलेर राज्य की स्थापना की|। आज भी गुलेर को काँगड़ा के हर त्योहार/उत्सव में प्राथमिकता मिलती है क्योंकि वह काँगड़ा वंश के बड़े भाई द्वारा स्थापित किया गया था। संसारचंद-I कर्मचंद का बेटा था जो 1430 ई. में राजा बना।

मुगलवंश-धर्मचंद (1528 ई. से 1563 ई.), मानिक चंद (1563 ई. से 1570 ई.), जयचंद (1570 ई.-1585 ई.) और विधिचंद (1585 ई. से 1605)ई. अकबर के समकालीन राजा थे। राजा जयचंद (1570 ई. से 1585 ई.) को अकबर ने गुलेर के राजा रामचंद की सहायता से बंदी बनाया था। राजा जयचंद के बेटे विधिचंद ने 1572 ई. में अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया। अकबर ने हुसैन कुली खान को काँगड़ा पर कब्जा कर राजा बीरबल को देने के लिए भेजा। ‘तबाकत-ए-अकबरी’ के अनुसार खानजहाँ ने 1572 ई. में काँगड़ा किले पर कब्जा कर लिया परन्तु हुसैन मिर्जा और मसूद मिर्जा के पंजाब आक्रमण की वजह से उसे इसे छोड़ना चहा अकबर ने टोडरमल को पहाड़ी क्षेत्रों को मापने के लिए भेजा। 1589 ई. में विधिचंद ने पहाड़ी राजाओं से मिलकर विद्रोह किया| 

त्रिलोकचंद (1605 ई. 1612 ई.) और हरिचंद-II (1612-1627) जहांगीर के समकालीन काँगड़ा के राजा थे। हरिचंद-II के समय नूरपुर के राजा सूरजमल ने विद्रोह कर चम्बा में शरण ली। सूरजमल के छोटे भाई जगत सिंह और राय.रैयन विक्रमजीत की मदद से 1620 ई. में काँगड़ा किले पर नवाब अली खान ने कब्जा कर लिया। नवाब अली खान काँगडा किले का पहला मुगल (किलेदार था जहाँगीर अपनी पत्नी नूरजहां के साथ सिब्बा गुलेर होते हुए काँगड़ा आया। काँगड़ा किले में मस्जिद बनाई । वापसी में वह नूरपुर और पठानकोट होता हुआ वापस गया।

चन्द्रभान सिंह (1627 ई. से 1660 तक)-काँगड़ा वंश का अगला राजा हुआ जिसे मुगलों ने राजगिर की जागीर देकर अलग जगह बसा दिया। चंद्रभान सिंह को 1660 ई. में औरंगजेब ने गिरफ्तार किया।

विजयराम चंद (1660 ई. से 1697 ई.)-ने बीजापुर शहर की नींव रखी और उसे अपनी राजधानी बनाया।

आलमचंद (1697 ई. से 1700 ई.)- ने 1697 ई. में सुजानपुर के पास आलमपुर शहर की नींव रखी।

हमीरचंद (1700 ई. से 1747 ई.)-आलमचंद के पुत्र हमीरचंद ने हमीरपुर में किला बनाकर हमीरपुर शहर की नींव रखी। इसी के कार्यकाल में नवाब सैफअली खान (1740 ई.) काँगड़ा किले का अंतिम मुगल किलेदार बना।

राजधानी-1660 ई. से 1697 ई. तक बीजापुर, 1697 से 1748 ई. तक आलमपुर और 1761 ई. से 1824 ई. तक सुजानपुर टीहरा काँगड़ा रियासत की राजधानी रही। 1660-1824 ई. से पूर्व और बाद में कांगड़ा की राजधानी काँगड़ा शहर थी जो कि 1855 ई. में अंग्रेजों ने धर्मशाला स्थानांतरित कर दी।

3. काँगड़ा का आधुनिक इतिहास 

अभयचंद (1747 ई. से 1750 ई.)-अभयचंद ने ठाकुरद्वारा और 1748 ई. में टिहरा में एक किले की स्थापना की।

घमण्डचंद (1751 ई.-1774 ई.)-घमण्डचंद ने 1761 ई. में सुजानपुर शहर की नींव रखी। अहमदशाह दुर्रानी के आक्रमण (मुगलों पर) का फायदा उठाकर घमंडचंद ने काँगड़ा किला को छोड़कर अपनी पुरानी सारी रियासत पर कब्जा कर लिया। घमण्डचंद को 1759 ई. में अहमदशाह दुर्रानी ने जालंधर दोआब का निजाम बनाया। घमण्डचंद की 1774 ई. में मृत्यु हो गई।

संसारचंद-II (1775 ई. से 1824 ई.) जस्सा सिंह रामगढ़िया पहला सिख था जिसने काँगड़ा, चम्बा, नूरपुर की पहाड़ियों पर जाक्रमण किया। उसे 1775 ई. में जयसिंह कन्हया ने हराया, सायद ने जयसिंह कन्हैया को काँगडा किले पर कब्जे के लिए 1781 ई. में बुलाया। सैफअली खान की मृत्यु के बाद 1783 ई. में जय सिंह कन्हैया ने काँगड़ा किले पर कब्जा कर लिया। उसने 1787 ई. में संसारचंद को काँगड़ा किला सौंप दिया तथा बदले में मैदानी भू-भाग ले लिया।

संसारचंद के आक्रमण-संसादचंद ने रिहलू के लिए चम्बा के राजा को नेरटी शाहपुर में हराया। उसने मण्डी के राजा ईश्वरीसेन को बंदी बना 12 वर्षों तक नदौन में रखा जिसे बाद में अमर सिंह थापा ने छुड़वाया। संसारचंद ने 1794 ई. में बिलासपुर पर आक्रमण किया बाद में उसके पतन का कारण बना। कहलूर (बिलासपुर) के राजा महानचंद ने गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा को संसारचंद पर आक्रमण के लिए निमंत्रण दिया।

संसारचंद का पतन- अमर सिंह थापा ने 1805 ई. में बिलासपुर, सुकेत, सिरमौर चम्बा की संयुक्त सेनाओं के साथ मिलकर महलमोरियो (हमीरपुर) में संसारचंद को हराया। संसारचंद ने काँगड़ा किले में शरण ली। संसारचंद ने नौरंग वजीर की मदद से काँगड़ा किले से निकलकर 1809 में महाराजा रणजीत सिंह के साथ ज्वालामुखी की संधि की। 1809 ई. में महाराजा रणजीत सिंह ने अमर सिंह को हराया। संसारचंद ने काँगड़ा किला और 66 गाँव महाराजा रणजीत सिंह को दिए। महाराजा रणजीत सिंह ने देसा सिंह मजीठिया को काँगड़ा किले व क्षेत्र का नाजिम (गर्वनर) बनाया। संसारचंद की 1824 ई. में मृत्यु हो गई।

अनिरुद्धचंद (1824)-संसारचंद के बाद उसका बेटा अनिरुद्धचंद काँगड़ा का राजा बना । महाराजा रणजीत सिंह ने अनिरुद्धचंद से अपने प्रधानमंत्री राजा ध्यानसिंह (जम्मू) के पुत्र हीरा सिंह के लिए उसकी एक बहन का हाथ माँगा। अनिरुद्धचंद ने टालमटोल कर अपनी बहनों का विवाह टिहरी गढ़वाल के राजा से कर दिया। अनिरुद्धचंद स्वयं ब्रिटिशों के पास अदिनानगर पहुँच गया। वर्ष 1833 ई. में रणजीत सिंह ने अनिरुद्धचंद की मृत्यु के बाद उसके बेटों (रणबीर चंद और प्रमोदचंद) को महलमेरियो में जागीर दी। वर्ष 1846 ई. में काँगड़ा पूर्ण रूप से ब्रिटिश प्रभुत्व में आ गया। अनिरुद्धचंद के बाद रणबीर चंद (1828 ई.), प्रमोद चंद (1847 ई.), प्रतापचंद (1857 ई.), जयचंद (1864 ई.) और ध्रुवदेव चंद काँगड़ा के राजा बने।

(ख) गुलेर रियासत-गुलेर रियासत का पुराना नाम ग्वालियर था। काँगड़ा के राजा हरिचंद ने 1405 ई. में गुलेर रियासत की स्थापना हरिपुर में की जहाँ उसने शहर व किला बनवाया। हरिपुर किले को गुलेर किला भी कहा जाता है। हरिपुर गुलेर रियासत की राजधानी थी।

रामचंद (1540 ई.-1570 ई.)-गुलेर रियासत के 15वें राजा ने काँगड़ा के राजा जयचंद को पकड़ने में मुगलों की मदद की। वह अकबर का समकालीन राजा था।

जगदीश चंद (1570 ई. -1605 ई.)-1572 में काँगड़ा के राजा के विद्रोह को दबाने के लिए जो सेना भेजी उसमें जगदीश चंद ने भाग नहीं लिया।

रूपचंद (1610 ई.-1635 ई.)-रूप चंद ने काँगड़ा किले पर कब्जे के लिए मुगलों की मदद की थी। वह जहाँगीर का समकालीन था।

मानसिंह (1635 ई.-1661 ई.)-मानसिंह को उसकी बहादुरी के लिए शाहजहाँ ने ‘शेर अफगान’ की उपाधि दी थी। उसने मकोट व तारागढ़ किले पर 1641-42 ई. में कब्जा किया था। मानगढ़ का किला मानसिंह ने बनवाया था। 1661 ई. में बनारस में उसकी मृत्यु हो गई।

राज सिंह (1675 ई.-1695 ई.)-राज सिंह ने चम्बा के राजा चतर सिंह, बसौली के राजा धीरजपाल और जम्मू के किरपाल देव के साथ मिलकर मुगलों को हराया था।

प्रकाश सिंह (1760-1790 ई.)-प्रकाश सिंह से पूर्व दलीप सिंह (1695-1730) और गोवर्धन सिंह(1730-1760) गुलेर के राजा बने। प्रकाश सिंह के समय घमण्डचंद ने गुलेर पर कब्जा किया। बाद में संसारचंद ने गुलेर पर कब्जा किया। ध्यान सिंह वजीर ने कोटला इलाका गुलेर राज्य के कब्जे (1785) में रखने में मदद की।

भूप सिंह (1790-1820 ई.)-भूप सिंह गुलेर का आखिरी राजा था जिसने शासन किया। देसा सिंह मजीठिया ने 1811 ई. में गुलेर पर कब्जा कर कोटला किले पर कब्जा कर लिया। भूप सिंह के पुत्र शमशेर सिंह (1820-1877 ई.) ने सिक्खों से हरिपुर किला आजाद करवा लिया था। शमशेर सिंह के बाद जय सिंह, रघुनाथ सिंह और बलदेव सिंह (1920 ई.) गुलेर वंश के राजा बने । वर्ष 1846 ई. में गुलेर पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया।

(ग) नूरपुर राज्य-नूरपुर का प्राचीन नाम धमेरी था। नूरपुर राज्य की पुरानी राजधानी पठानकोट (पैठान) थी। अकबर के समय में नूरपुर के राजा बासदेव ने राजधानी पठानकोट से नूरपुर बदली। प्राचीन काल में नूरपुर और पठानकोट औदुंबर क्षेत्र के नाम से जाना जाता था।

स्थापना-नूरपुर राज्य की स्थापना चंद्रवंशी दिल्ली के तोमर राजपूत झेठपाल द्वारा 1000 ई. में की गई थी।

जसपाल (1313-1337 ई.)-अलाउद्दीन खिलजी का समकालीन था।

कैलाशपाल (1353-97 ई.) ने ‘तातार खान’ (खुरासान का गवर्नर फिरोजशाह तुगलक के समय)

भीमपाल (1473-1513 ई.) सिकंदर लोदी का समकालीन था।

भक्तमल (1513-58 ई.)-भक्तमल का विवरण ‘अकबरनामा’ में मिलता है। भक्तमल के समय शेरशाह सूरी के पुत्र सलीम शाह ने मकौट किला बनवाया। सिकंदर शाह ने अकबर के शासनकाल में 1557 ई. में भक्तमल के सहयोग से मकौट किले में शरण ली। मुगलों ने 1558 ई. को भक्तमल को गिरफ्तार कर लाहौर भेज दिया जहां बैरम खाँ ने उसे मरवा दिया। भक्तमल ने शाहपुर में भी किला बनवाया था।

तस्तमल (1558-80 ई.) को भक्तमल के स्थान पर राजा बनाया गया। वह भक्तमल का भाई था। उसने सर्वप्रथम अपनी राजधानी को पठानकोट से धमेरी बदलने के बारे में सोचा परन्तु हकीकत में लाने से पहले ही मर गया।

बासदेव (1580-1613 ई.)-वासदेव ने नूरपुर की राजधानी पठानकोट से धमेरी बदलीबासदेव ने कई बार मुगलों के विरुद्ध (खासतौर पर अकबर) विद्रोह किया। ये सारे विद्रोह सलीम (जहाँगीर) के समर्थन में थे। बासदेव के जहाँगीर के साथ बहुत अच्छे सबंध थे| 

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