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Bihar ka Geography Gk Notes in hindi
दोस्तों आपका हमारी वेबसाइट में स्वागत है| आज हमने अपने इस आर्टिकल में Bihar ka Geography Gk Notes in hindi के बारे में जानकारी साझा की है| जो आपकी बिहार की आने वाली सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के दृष्टिकोण से काफी जरूरी है| आप इस आर्टिकल में बिहार का भूगोल नोट्स का पूरा संग्रह मिलेगा जो आपको परीक्षाओं में सफलता के लिए सहायता करेगा|
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बिहार की भू-गर्भिक संरचना
बिहार की भूगर्भिक संरचना का अध्ययन विभिन्न युगों में निर्मित चट्टानों के आधार पर किया जा सकता है बिहार में पाई जाने वाली चट्टानों को चार प्रमुख संरचनात्मक समूह में रखा जा सकता है:-
1.धारवाड़ चट्टानों :- चैंपियन युग में बनी चट्टाने बिहार के दक्षिण पूर्वी भाग मुंगेर के खड़कपुर की पहाड़ी, जमुई नवादा, राजगीर, बिहार शरीफ इत्यादि स्थानों पर पाई जाती है तथा ये चट्टानें आयु में आर्मीयन चट्टानों के समकक्ष हैं| स्लेट, कार्टजाईट, फिलाईट, शिष्ट आदि धारवाड़ समूह की चट्टानें है|

2.विंध्यन समूह की चट्टानें :- प्री-कैंब्रियन युग में बनी ये चट्टानें सोन नदी के उत्तर रोहतास और कैमूर जिले में पाई जाती है| इन चट्टानों से सीमेंट उद्योग को चूना पत्थर तथा केंद्र के लिए पायराइट मिलता है| साथ ही इनका प्रयोग गृह निर्माण में भी किया जाता है| इन चट्टानों का प्रयोग मनेर की दरगाह, आगरा, दिल्ली, सासाराम और जयपुर के ऐतिहासिक भवनों और सारनाथ रांची एवं अन्य स्थानों के बौद्ध स्तूपों में हुआ है, इन चट्टानों में बालू पत्थर डोलोमाइट चुना पत्थर कोल इत्यादि आते हैं|
3.टर्शियरी चट्टानें :- टर्शियरी चट्टानें पश्चिमी चंपारण के उत्तरी पश्चिमी भाग रामनगर दून और सोमेश्वर श्रेणी जोकि बाह्य हिमालय या शिवालिक श्रेणी का भाग है, में पाई जाती है|
4.कार्टरनरी चट्टानें :- यह चट्टानें जलोढ़ बालू-पत्थर, बाल-बजरी, कांगलोमरेट आदि से बनी है तथा इन चट्टानों का निर्माण पलिस्स्टोसीन काल में हुआ था| जिसका निक्षेप शिवालिक के दो उत्थान के बाद इसके दक्षिण में बनी सिंधु-गंगा द्रोणी में हुआ है| नदियों के इस निक्षेपण के कारण यहां एक मंद ढाल वाला विशाल मैदान निर्माण हुआ, जिसे बिहार का मैदान कहा जाता है| संपूर्ण बिहार के मैदानी भागों में जलोढ़ की गहराई एक समान नहीं है| गंगा के जलोढ़ की गहराइयों पहाड़ियों के निकट अपेक्षाकृत कम है, जबकि इसके पश्चिम की ओर बढ़ने पर जलोढ़ की गहराई आधार शैलो पर 100 से लेकर 700 मीटर तक है| अगर डुमराव, आरा, बिहटा और पुनपुन को एक रेखा से मिलाया जाए तो इसके समांतर हिज रेखा के समीप जरूर की गहराई अकस्मात 300 से 350 मीटर से बढ़कर 700 मीटर हो जाती है|
बिहार का भूगोल
बिहार का प्राकृतिक स्वरूप
-भूविज्ञान के दृष्टिकोण से बिहार में व्यापक संगठनात्मक इकाई में शामिल है| इनमें उत्तरी बिहार का मैदान चतुर्थ कल्प से संबंधित है, तथा उत्तरी चंपारण तृतीय कल्प से और औरंगाबाद विंध्यन काल से संबंधित है|
– उच्चवचा या धरातलीय रूप के आधार पर बिहार को तीन भागों में बांटा जा सकता है:-
1.शिवालिक पर्वत श्रेणी
यह बिहार के उत्तर पश्चिमी भारत में पश्चिमी चंपारण जिले के उत्तरी भाग में स्थित है इसका विस्तार 932 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में हुआ है तथा यह 250 से 280 मीटर ऊँचा है|स्थानीय उच्चावच के आधार पर इसे तीन भागों में बांटा जा सकता है|
2.रामनगर की पहाड़ी
यह बिहार के उत्तर पश्चिमी भारत में पश्चिमी चंपारण जिले के उत्तरी भाग में स्थित है, इसका विस्तार 932 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है तथा यह 250 से 280 मीटर ऊँचा है|
3.हररा या दून घाटी
214 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली इस घाटी की अधिकतम ऊंचाई 240 मीटर है| यह रामनगर दो उनके उत्तर पूर्व की ओर से शुरू होती है या 22 किलोमीटर लंबी है तथा इस घाटी को हररा नदी की घाटी भी कहते हैं|
4.सोमेश्वर श्रेणी
इस श्रेणी का शेष भाग बिहार और नेपाल के बीच सीमा के रूप में है| इसमें नदियों के अपरदन से अनेक दर्रे बनते हैं, जैसे भिखनाठोरी दर्रा, सोमेश्वर दर्रा और मारवाट दर्रा आदि| इन्हीं दर्रों से बिहार और नेपाल के बीच में संपर्क मार्ग बनता है| टर्शियरी काल में बनी इस श्रेणी में बालू-पत्थर, चीका, कांग्लोमरेट आदि वलीक रूप में पाए जाते थे तथा इनकी सर्वोच्च चोटी की ऊंचाई 880 मीटर है|
बिहार का भूगोल GK
बिहार के मैदान
यह उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में झारखंड के छोटानागपुर की उत्तरी सीमा तक फैला हुआ है तथा इसका क्षेत्रफल 45000 वर्ग किलोमीटर है, जिसका ढाल सर्वत्र एक समान एवं धीमा है तथा इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 60 मीटर से 120 के बीच है, जबकि औसत गहराई 1000 मीटर से 15000 मीटर के बीच है| गंगा नदी इस मैदानों को दो भागों में बांटती है:-
गंगा के उत्तरी मैदान
इसका निर्माण गंगा एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा गाए गए अवसादों में हुआ है| इस मैदान का ढाल उत्तर से दक्षिण की ओर तथा पश्चिम से पूर्व की ओर है| नदियों ने इस प्रदेश को कई दोआबों में वर्गीकृत किया है- घाघरा-गंडक-कोसी दोआब एवं कोसी-महानंदा दोआब| इस मैदान में नदियों के मध्य बाढ़ क्षेत्र की विशेष आकृति दियारा प्रदेश तथा नदी धाराओं से निर्मित चौर एवं छाड़न अपनी क्षेत्रीय विशेषताएँ रखती है| इस मैदान के दक्षिणी सीमांत के क्षेत्र अपेक्षाकृत ऊँचा है| यह गंडक, बूढी गंडक, कोसी, महानंदा नदियों द्वारा लाई गई मिटटी और रेत से निर्मित जलोढ़ पंख का क्षेत्र है, जहाँ पर ये नदियाँ अपना प्रवाह पथ बदलती रही है| इस मैदान का विस्तार सारण, चम्पारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मुंगेर, भागलपुर, सहरसा और पूर्णिया जिलों में है|
गंगा का दक्षिणी मैदान
गंगा नदी के दक्षिण तट से छोटानागपुर पठार के ऊपर तक फैला दक्षिण बिहार का मैदान मुख्यत: समतल है| कहीं-कहीं बाह्य स्थिति पहाड़िया इसकी एकरूपता को भंग करती है| इनमें गया (266 मीटर), राजगीर (466 मीटर), खडकपुर(510 मीटर) और गिरियक की पहड़ियां मुख्य है| इस मैदान का ढाल दक्षिण से उतर की ओर है तथा इसका निर्माण पठारी प्रदेश से होकर बहने वाली नदियों द्वारा लाई गई बलुई मिट्टी से हुआ है| इस क्षेत्र की नदियाँ प्राकृतिक तटबंध और इससे सटे ताल (वृक्षाबिहीन निम्नभूमि) का निर्माण करती है| यह क्षेत्र मुख्यत: तीन भागों में बांटा जा सकता है: – गंगा-सोन दोआब, मगध का मैदान और अंग का मैदान उतर-पूर्व में राजमहल की पहाड़ियाँ तथा उतर-पश्चिम में कैमूर के पठार भी इसी श्रेणी की अंतर्गत आते है|
दक्षिणी का संकीर्ण पठार
बिहार के सुदूर दक्षिण में पठारी भाग में स्थित है, जो एक संकीर्ण पट्टी के रूप में पश्चिम में कैमूर जिले से लेकर पूर्व में मुंगेर और बाकी जिलों तक विस्तृत है| यह प्रायद्वीपीय भारत के पठार का एक बाह्य अंग है जो कैमूर, रोहतास, गया, नवासा एवं मुंगेर जिलों के दक्षिण भाग में फैला हुआ है| प्रायद्वीपीय पठार का भाग होने के कारण भूखंड कठोर चट्टानों से निर्मित है|
बिहार की मृदाएँ
गंगा के उतरी मैदान की मृदा
यह उत्तर मैदान की मृदा में अपोढ़ मृदा की प्रधानता है| इस मृदा का निर्माण स्थानीय चट्टानों के तलछट से हुआ है| इसमें तीन प्रकार की मृदा प्रमुख है:-
नवीन जलोढ़ मृदा
तराई के दक्षिणी में पाई जाने वाली इस मृदा का विस्तार सर्वाधिक पूर्णिया एवं सहरसा जिले में है तथा यह मृदा दरभंगा एवं मुजफ्फरपुर के क्षेत्रों में भी पाई जाती है| इस मृदा में चुना एवं क्षारीय तत्व नहीं पाया जाता है| इसमें काफी उर्वरा शक्ति पाई जाती है, जिसमें सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था करके धान, गेहूं एवं जुट की फसल उगाई जा सकती है तथा यह मृदा गाढ़े भूरे रंग की या काली होती है|
दलदली या तराई क्षेत्र की मृदा
इस प्रकार की मृदा का विस्तार उत्तरी सीमा के साथ पश्चिमी चंपारण की पहाड़ियों से लेकर पूर्व में किशनगंज तक फैला है| इस मृदा में कहीं-कहीं कंकड़ एवं रेत की अधिक मात्रा पाई जाती है तथा इसका रंग हल्का भूरा या पीला है| पर्याप्त आर्द्रता वाली इस मृदा में सामान्य श्रेणी की उर्वरता पाई जाती है|
बाल सुंदरी मृदा
यह मृदा नवीन जलोढ़ के बाद पूर्णिया के दक्षिणी भाग से आरम्भ होकर सहरसा, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, सारण तथा चम्पारण जिलों में विस्तृत है| इस मृदा को पुरानी जलोढ़ भी कहते है, जिनमें चुने की तत्व की प्रधानता है तथा गहरे भूरे रंग की मृदा है| इसकी उर्वरता निम्न श्रेणी की होती है तथा यहाँ की मुख्य फसलें मक्का, ईख,धान, गेहूं तथा तम्बाकू है| इस क्षेत्र में आम. लीची और केले के बागन भी पाए जाते है|
बिहार एक परिचय इन हिंदी
गंगा के दक्षिणी मैदान की मृदा
गंगा के दक्षिण में मुख्यत: तीन प्रकार की मृदा पाई जाती है:-
1.बलथर मृदा
बिहार के मैदानी भाग में गंगा के मैदान की पश्चिमी सीमा पर जहां से छोटा नागपुर की पहाड़ी भाग प्रारंभ होता है| बलथर मृदा की संकीर्ण क्षेत्र स्थित है| इस मृदा का रंग पीला और लाल है तथा इसकी आकृतियां बनी होती है इस मृदा में रेत का कंकड़ की बहुलता रहती है इस मृदा की उर्वरता शक्ति कम होती है तथा इस मृदा में अरहर, कुर्ती, ज्वार, बाजरा इत्यादि मोटे अनाज उगाए जाते हैं|
2.पुरानी जलोढ़ करैल-कवाल मृदा
इस मृदा का विस्तार रोहतास से लेकर गया और, औरंगाबाद, पटना, जहानाबाद, मुगेर होता हुआ भागलपुर तक है| इस मृदा का रंग गहरा भूरा पीला एवं हल्का पीला होता है| तथा मृदा का रंग गहरा भूरा, पीला एवं हल्का पीला होता है तथा करैल मृदाओं में क्षारीय एवं अम्लीय गुण काफी संतुलित मात्रा में पाए जाते है| इस मृदा में जल सोखन की क्षमता अधिक होती है तथा इसमें अत्याधिक उर्वरा शक्ति पाई जाती है|
3.ताल या टाल की मृदा
इस मृदा का निर्माण हो वर्षा ऋतु के बाद आई बाढ़ द्वारा बारीक मोटे कणों वाली मृदा के विक्षेपण से होता है| ताल मृदंगा के दक्षिणी भाग में 8 से 10 किलोमीटर की चढ़ाई की पट्टी में मोटे कणों वाली धूसर रंग की भारी मृदा के रूप में विस्तृत है| कुछ क्षेत्रों में बलुई करैल भी शामिल है| यह अत्याधिक उर्वर मृदा है तथा यहाँ रब्बी की अत्यंत श्रेष्ठ उपज प्राप्त की जाती है|
4.दक्षिणी पठार की मृदा
संकीर्ण दक्षिणी पठार में मिलने वाली अवशिष्ट मृदा जो मुख्यत: लाल एवं पीले रंग की होती है,दक्षिणी पठार की मृदा कही जाती है| यह मुख्यत: दो प्रकार की होती है:-
(i) लाल ओर पीली मृदा : इस मृदा का निर्माण आग्रेय और रुपांततरित चट्टानों के विघटन से हुआ है तथा लौह तत्व की अधिकता के कारण इस मृदा का रंग लाल हो गया है| यह मृदा मुख्य रूप से बांका, नवादा,गया, औरंगाबाद, जमुई और खड्गपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में पायी जाती है| इसमें उर्वरा शक्ति कम होती है, इसलिए इसमें मुख्य रूप से मोटे अनाज, दलहन इत्यादि की खेती होती है|
(ii) लाल बालुका युक्त मृदा : यह मृदा रोहतास एवं कैमूर जिलों की पहाड़ियों से उपरी भाग के निर्माण लाल ब्लुका पत्थर से होने के कारण इस मृदा का रंग लाल या पीला होता है| इस मृदा में अधिक बालू की मात्रा होने के कारण यह मृदा कम उपजाऊ होती है| इसमें मुख्य रूप से बाजरा, ज्वार इत्यादि फसलों को उपजाया जाता है|