Ancient History of Madhya Pradesh in hindi
नमस्कार दोस्तों आज हमने इस लेख में Ancient History of Madhya Pradesh in hindi part-1 के बारे में जानकारी दी है| इसका उद्देश्य आपके सामान्य ज्ञान तथा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने में आपका मार्गदर्शन करें|
प्रागैतिहासिक काल
प्रागैतिहासिक काल को निम्नलिखित कालों में विभाजित किया जा सकता है–
1-पूरापाषाण काल
–निम्न पूरापाषाण काल
–मध्य पूरापाषाण काल
–उच्च पूरापाषाण काल
2-मध्य पाषाण काल
3-नवपाषाण काल
4-ताम्र–पाषाण काल
5-लौह युग संस्कृति
6-महापाषाण काल
पूरापाषाण काल
डॉ. एच.डी. सांकलिया सुपेकर, आर.बी.जोशी एवं बी.बी.लाल जैसे पूरातत्विदों ने नर्मदा घाटी का सर्वेक्षण किया है| नर्मदा घाटी से विभिन्न प्रकार की पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई है उस काल की कुल्हाड़ीयां नर्मदा घाटी के उत्तर में देवरी,सुखचाईनाला, बुरधाना, केडघाटी, बरबुख,संग्रामपुर में तथा दमोह में प्राप्त हुए है|
हथ्नोरस से मानव की खोपड़ी के साक्ष्य मिले है| महादेव चिपरिया में सुपेकर को 860 औजार प्राप्त हुए है| चंबल घाटी, बेतवा नदी, सोन घाटी तथा भीमबेटका से औजार तथा उपकरण प्राप्त हुए हैं|
Ancient History of Madhya Pradesh in hindi
मध्य पाषाण काल
भारत में मध्य पाषाण काल की खोज का श्रेय सी. एल. कलाईल को जाता जाता है| जिन्होंने 1867 ईस्वी में विंध्य क्षेत्र लघु पाषाण उपकरण की खोज की| मध्य प्रदेश में इस काल की संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान जबलपुर के समीप बड़ा शिमला नामक पहाड़ी है जहां से विभिन्न अस्त्र प्राप्त हुए हैं|
नवपाषाण कालीन संस्कृति
इस काल में पत्थरों के साथ–साथ हड्डियों के औजार भी बनाए जाते थे| इस काल के औजार मध्यप्रदेश में एरण,जतारा, जबलपुर, दमोह, सागर तथा होशंगाबाद से प्राप्त हुए हैं| इस काल में कृषि तथा पशुपालन के साक्ष्य भी मिले हैं|
मध्य प्रदेश का पुराना नाम क्या था?:- मध्य प्रदेश का मध्य भारत था| इसको अन्य नामों से भी जाना जाता है| जैसे भारत का दिल, सोया हुआ राज्य, टाईगर स्टेट आदि|
गुफा चित्र
पंचमढ़ी के निकट बहुत सी गुफाएं प्राप्त हुई है| इनमे से लगभग 40 गुफाएं विविध प्रकार के चित्रों से सुस्सज्जित है| होशंगाबाद से भी एक गुफा प्राप्त हुई है, जिसमें एक जिराफ का चित्र बना हुआ है| पंचमढ़ी के निकट 30 से 40 मील की दूरी पर तामिया, सोनभद्र, इत्यादि गांवों में कई गुफा के चित्र प्राप्त हुए हैं| फतेहपुर स्थान से कुछ चट्टानों पर चित्र प्राप्त हुए हैं|
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history of madhya pradesh in hindi |
मध्य प्रदेश का इतिहास हिंदी में
ताम्र पाषाणकालीन संस्कृति
सफेदा का दूसरा चरण पाषाण काल एवं ताम्रकाल के रूप में विकसित हुआ| नर्मदा की सुरम्य घाटी में ईसा से 2000 वर्ष पूर्व यह सभ्यता फली फूली थी| महेश्वर, नवादाटोली, कायथा, नागदा, बरखेडा आदि इसके केंद्र थे| इन क्षेत्रों की खुदाई से प्राप्त अवशेषों से इस सभ्यता के बारे में जानकारी मिलती है| उत्खनन में मृदभांड, धातु के बर्तन एवं औजार मिले है| इनके अधयन्न से ज्ञात होता है की विश्व एवं देश के अन्य क्षेत्रों के समान मध्य पदेश के कई भागों में खासकर नर्मदा,चम्बल,बेतवा आदि नदियों के किनारों पर ताम्र पाषाण सभ्यता का विकास हुआ है|
कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक दल ने सन 1932 में इस सभ्यता के चिन्ह प्रदेश के जबलपुर और बालाघाट जिलों से प्राप्त किए थे| इस काल में यह सभ्यता आदिम नहीं रह गई थी| घुमक्कड़ जीवन अब समाप्त हो गया था और खेती की जाने लगी थी| अनाज और दालों का उत्पादन होने लगा था| कृषि उपकरण धातु के बनते थे| मिट्टी और धातु के बर्तनों का उपयोग होता था| इन पर चित्रकारी होती थी| बच्चों में प्रमुख रूप से गाय, बकरी, कुत्ता आदि पाले जाते थे|
लौहयुगीन संस्कृति
मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से लोहा युगीन संस्कृति के साथ से भिंड, मुरैना तथा ग्वालियर से प्राप्त हुए हैं|
महापाषाण संस्कृति
महा भाषण संस्कृति के अंतर्गत कब्रों पर बड़े–बड़े पत्थर रखे जाते थे| महा पाषाण संस्कृति साक्ष्य रीवा– सीधी क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं|
वैदिक काल
आर्यों का भारत में पंचनद क्षेत्र में प्रवेश हुआ। वेबर के अनुसार,आर्यों को नर्मदा घाटी तथा उसके क्षेत्रों की जानकारीथी। महर्षि अगस्त्य के संरक्षण में यादवों का एक समूह इसक्षेत्र में आकर बस गया। शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित है किविश्वामित्र के 50 शापित पुत्र क्षेत्र में आकर बसे।पौराणिक अनुभूतियों के अनुसार, कारकोट के नागवंशी शासकों के इक्ष्वाकु नरेश मांधाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों की सहायता हेतु भेजा। इस युद्ध में गन्धर्व पराजित हुए।
नाग शासक ने अपनी पुत्री रेवा का विवाह पुरुकुत्स से कर दिया। पुरुकुत्स ने रेवा का नाम नर्मदा कर दिया। इसी वंश के मुचकुन्द ने परियात्र तथा वृक्ष पर्वतमालाओं के मध्य नर्मदा नदी के किनारे पर अपने पूर्वज मांधाता के नाम पर एक नगरी स्थापित की, जिसे ‘मांधाता नगरी (वर्तमान खंडवाजिला) कहा गया।यादव वंश के हैहय शासकों के काल में इस क्षेत्र के वैभव में काफी वृद्धि हुई। उन्होंने नागों तथा इक्ष्वाकुओं को पराजित किया। इनके पुत्र द्वारा कौरवों को पराजित किया गया।कार्तवीर्य अर्जुन इस वंश के प्रतापी शासक थे। गुर्जर देश के भार्गवों द्वारा हेहय पराजित हुए। इनकी शाखाओं में दुश्मर्ण(विदिशा), त्रिपुरी, तुन्दीकर (दमोह), अवन्ति अनुप (निमाड़) जनपदों की स्थापना हुई थी|
महाकाव्य काल
रामायण काल के समय प्राचीन मध्य प्रदेश के अंतर्गत महाकांतार तथा दण्डकारण्य के घने वन थे। राम ने अपने वनवास का कुछ समय दण्डकारण्य (अब छत्तीसगढ़) में व्यतीत किया था। राम के पुत्र कुश, जो कि दक्षिण कोशल के राजा थे, जबकि शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती ने दशार्ण (विदिशा) पर शासन किया। विध्य, सतपुड़ा के अतिरिक्त यमुना के काठे का दक्षिण भू–भाग तथा गुर्जर प्रदेश के क्षेत्र इसी घेरे में थे।
पुरातत्वविदों के अनुसार, यहां की सभ्यता 2.5 लाख वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। लोग भी निवास करते थे। पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त नर्मदा घाटी से प्राप्त औजार इस बात का संकेत देते हैं कि निश्चित ही यह घाटी उस समय सभ्यता का केंद्र रही होगी। महाभारत के युद्ध में इस क्षेत्र के राजाओं द्वारा भी योगदान दिया गया। इस युद्ध में काशी, वत्स, दर्शाण, चेदि तथा मत्स्य जनपदों के राजाओं ने पाण्डवों का साथ दिया।
इसके अतिरिक्त महिष्मति के नील, अवन्ति के बिन्द, अंधक, भोज, ,विदर्भ तथा निषाद के राजाओं ने कौरवों का पक्ष लिया। पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के काल में कुछ समय यहां के जंगलों में व्यतीत किया था। विराटपुरी (सोहागपुर), उज्जयिनी (उज्जैन), गहिगती (महेश्वर), कुन्तलपुर (कोडिया) इत्यादि महाकाव्य काल के प्रमुख नगर थे।
महाजनपद काल
छठवीं शताब्दी ई.पू. में अगुंतर निकाय तथा भगवती सूत्र में 16 जनपदों का उल्लेख मिलता है। इनमें से चेदी तथा अवन्ति जनपद मध्य प्रदेश के अंग थे। अवन्ति जनपद अत्यंत ही विशाल था। यह मध्य तथा पश्चिमी मालवा के क्षेत्र में बसा हुआ था। इसके दो भाग थे– उत्तरी तथा दक्षिणी अवन्ति। उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जयनी तथा दक्षिण अवन्ति की राजधानी महिष्मती थी। इन दोनों के मध्य नेत्रावती नदी बहती थी। पाली ग्रंथों के अनुसार, बौद्ध काल में अवन्ति की राजधानी उज्जयनी थी। यहां का राजा प्रद्योत था। प्रद्योत के समय संपूर्ण मालवा तथा पूर्व एवं दक्षिण के कुछ प्रदेश अवन्ति राज्य के अधीन हो गए।
कालान्तर में मगध के हर्यक कुल के अन्तिम शासक नागदशक के काल में उसके अमात्य शिशुनाग द्वारा अवन्ति राज्य पर आक्रमण किया तथा प्रद्योत वंश के अन्तिम शासक नन्दिवर्धन को पराजित किया।अवन्ति राज्य को मगध में मिला लिया गया। चेदि जनपद आधुनिक बुदेलखंड के पूर्वी भाग तथा उसके समीपस्थ भू–खंड में फैला हुआ था।
प्राचीन जनपदों के परिवर्तित नाम
प्राचीन जनपद | नया पद |
वत्स | ग्वालियर |
अनूप | निमाड़ (खंडवा) |
चेदी | खजुराहो |
अवन्ती | उज्जैन |
तुंडीकेर | दमोह |
नलपुर | शिवपुरी |
दर्शाण | विदिशा |
मौर्यकाल
मौर्यकाल में अवन्ती प्रदेश का कुमारामात्य अशोक था| अपने पिता बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात अशोक शासक बना|अशोक के शिलालेख जबलपुर से 30 मीटर की दुरी पर रूपनाथ स्थान से प्राप्त हुए है| एक अन्य लेख चांदा जिले की में देव तक नामक स्थान से प्राप्त हुआ था त्रिपुरी नामक स्थान के उत्खनन में उतरी काले चमकदार मृदभांड तथा आहत मुद्राएं प्राप्त हुई है|सरगुजा की रामगढ़ पहाड़ों की गुफाओं से अशोककालीन रंग–रंजीत तथा उत्तकीर्ण दोनों प्रकार के लेख प्राप्त हुए हैं| मोदी और योगी सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित विभिन्न लघु शिलालेख मध्य प्रदेश में स्थित है:-
1 गुर्जरा (दतिया जिले में)
2 सारी–भारी (शहडोल जिले में)
3 रूपनाथ (जबलपुर जिले में)
4 साँची (रायसेन जिलें में)
5 पान गुडारिया (सीहोर जिले में)
सुंग काल
मालविकाग्निमित्रम् से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल था| उसने विधर्व का राज्यपाल अपने मित्र माधव सेन को बनाया था| इस काल में सतना जिले में बहुत के विशाल धूप का निर्माण कराया गया इस काल में सतना जिले के तीन स्तूपों का निर्माण हुआ| इसमें एक विशाल तथा दो लघु स्तूप थे| 14 वें वर्ष में तक्षशिला के पावन नरेश एंटीयासकिडाल के राजदूत हेलियोडारस ने विदिशा के समीप बंसलनगर में गरुड स्तम्भ की स्थापना की|
भरहुत
सतना जिले में एक विशाल स्तूप का निर्माण हुआ था। इसके अवशेष आज अपने मूल स्थान पर नहीं है, परन्तु उसकी वेष्टिनी का एक भाग तोरण भारतीय संग्रहालय कोलकाता तथा प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित है। 1875 ई. में कनिंघम द्वारा जिस समय इसकी खोज की गई, उस समय तक इसका केवल (10 फुट लंबा और 6 फुट चौड़ा) भाग ही शेष रह गया था। सांची (काकनादबोट) : 1818 ई. में सर्वप्रथम जनरल टेलर ने यहां के स्मारकों की खोज की थी। 1818 ई. में मेजर कोन ने स्तूप संख्या 1 को भरवाने के साथ उसके दक्षिण पूर्व तोरणद्वारों तथा स्तूप के तीन गिने हुए तोरणों को पुनः खड़ा करवाया।
यहां पर इस काल में तीन स्तूपों का निर्माण हुआ है, जिनमें एक विशाल तथा दो लघु स्तूप हैं। महास्तूप में भगवान बुद्ध के. द्वितीय में अशोककालीन धर्म प्रचारकों के तथा तृतीय में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सारिपुत्र तथा महामोदग्लायन के दंत अवशेष सुरक्षित हैं।इस महास्तूप का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक के समय में ईंटों की सहायता से किया गया था तथा उसके चारों ओर काष्ठ की वेदिका बनी थी। अशोक का संघभेद रोकने की आज्ञा वाला अभिलेख यहां से मिला है।
कुषाण काल (प्रथम शताब्दी ई.पु.)
साँची व् भेड़घाट से कनिष्क संवत 28 का लेख मिला है| यह वाशिष्क का है तथा बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है| कनिष्क के राज दरबार में निम्न विद्वानों की उपस्थिति थी– अश्वघोष (राजकवि) रचना (बुद्धचरित्र, सौन्दर्यनंद व् सारीपुत्र प्रकरण) आचार्य नागार्जुन , पाशर्व , वसुमित्र, मातृचेट, सरंक्षण, चरक (चरक (चरक सहिता ग्रन्थ) | कुषाणों का स्थान भारशिवनाग वंश ने लिया, जिनकी राजधानी पद्मावती थी|
सातवाहन काल
मध्य प्रदेश से प्राप्त अवशेषों से सातवाहन युग की स्थिति का भी ज्ञान प्राप्त होता है| गौतमी पुत्र शतकर्णी की नासिक गुफा लेख के अनुसार विदर्भ उसके अधिकार में था| त्रिपुरा के उत्खनन से सातवाहन वंशी सीसे के सिक्के प्राप्त हुए है| नर्मदा नदी के तट पर स्थित जमुनियां नामक ग्राम से जो सिक्के प्राप्त हुए है| उनके अनुसार यह कहा जा सकता है, की जबलपुर का चतुर्दिक प्रदेश प्रथम ईसा पूर्व शताब्दी में सातवाहन वंश के पूर्ववर्ती शाशकों के अधिकार में था|
पूर्ववर्ती सातवाहनों के सिक्के एरण , उज्जयनी तथा मालवा के सिक्कों से सबंध रखते है| परन्तु परवर्ती सातवाहन कालीन सिक्को के एक ताल पर हस्ती चिन्ह होने के कारण उन सिक्को का सम्बंध दक्षिण भारतीय कोरोमंडल तट तथा उज्जैन से स्पष्ट प्रकट होता है| त्रिपुरा के उत्खनन से प्राप्त दो अवशेष चांदा नामक जिले के भांदक तथा अकोला नामक स्थानों से और निकटवर्ती पातुर नामक स्थान से गुफाएं प्राप्त हुयी है|
गुप्त काल
मध्य प्रदेश में एरण नामक स्थान से गुप्तकालीन अवशेष प्राप्त हुए है| यह प्रदेश प्राचीन काल से एरिकरण के नाम से प्रसिद्ध था| सम्राट समुद्रगुप्त ने इसे बनाया था| समुद्रगुप्त की बाद बुद्धगुप्त तथा भानुगुप्त के काल के लेख भी यहाँ उत्कीर्ण है और तत्कालीन विशाल मन्दिरों के अवशेष भी प्राप्त हुए है| एरण के दक्षिण में 12 मिल की दुरी पर मध्य प्रदेश की सीमा पर पथारी नामक स्थान है, जहाँ पर गुप्तकालीन लेख तथा मूर्ति करना के कुछ अवशेष विद्यमान है|
गुप्तकाल का एक मंदिर जबलपुर के समीप तिगवा में अभी तक बना हुआ है| गुप्त काल के दो मुद्रा लेख नागपुर के पास माहुरझरी तथा पारसिवनी में पाए गये है| गुप्त काल के सोने के सिक्के के हट्टा के समीप सकौट, बैतूल तहसील में पट्टन, होशंगाबाद तहसील में हरदा तथा जबलपुर से प्राप्त हुए है| रायपुर जिले के खैरताल से प्राप्त श्री महेंद्रादित्य नामक अंकित सिक्के कुमार गुप्त प्रथम के माने जाते है| कुमार गुप्त के चांदी के 10 सिक्के इतिचपुर में पाए गये है|
गुप्त कालीन अभिलेख
मंदसौर अभिलेख –यह पश्चिम मालवा में स्थित था| इसका नाम ‘दशपुर’ भी ,मिलता है|
साँची अभिलेख
साँची से प्राप्त इस अभिलेख में हरीस्वामिनी द्वारा यहाँ के आर्य संघ को धनदान में दिए जाने का उल्लेख किया जाता है|
उदयगिरी शिलालेख
इस अभिलेख में शंकर नामक व्यक्ति द्वारा इस स्थान में पाशर्वनाथ की मूर्ति स्थापित किये जाने का उल्लेख है|
तुमैंन अभिलेख
यह अभिलेख गुना जिले स्थित है|
सुपिया का लेख
रीवा जिले के सुपिया नामक स्थान से स्थान से यह लेख प्राप्त होता है| इसमें गुप्तों की वंशावली घटोतद के समय से प्राप्त होती है|
एरण अभिलेख
एरण अभिलेख हुणों की उस्थिति को दर्शाता है|
वाकाटक वंश
वाकाटकों का रज्य का विदर्भ तथा भारत के भू–भागों में फैला हुआ था| इसका एक शिलालेख चांदा जिले के देवरेक गाँव में मिलता है| इस वंश की दो प्रमुख शाखाओं में से एक वाशिम (प्राचीन वत्सगुल्म) तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र पर तथा दूसरी मध्य विदर्भ पर शासन करती थी| प्रवरसेन द्वितीय के ताम्रपत्रों में बहुत से प्रदेशों का उल्लेख किया गया है| सिवनी,वर्धा,इलिचपुर,बालघाट,छिंदवाडा और भंडारा जिलों से भी बहुत ताम्रपात्र प्राप्त हुए है|
गुप्तोउतर काल
राष्ट्रकूट वंश
मध्य प्रदेश के अंतर्गत विदर्भ प्रांत पर 200 वर्षों से अधिक काल का राष्ट्रकूटों का राज्य रहा| इस वंश की अनेक शाखाएं थी| उनमे से सबसे प्राचीन शाखा बैतूल के निकटवर्ती क्षेत्रों पर राज्यरूढ रही| यह साक्ष्य बैतूल तथा अकोला जिले से प्राप्त तीन दान पत्रों से स्पष्ट ज्ञात होती होती है|
इस वंश का प्रभाव वस्तुत: स्थान सिमित होता है| कुछ समयोपरांत विदर्भ मान्यखेर के विस्तृत राज्य में सम्मिलित हो गया| मान्यखेर की शाखा से सबंध रखने वाले पांच ताम्रलेख और तिन शिलालेख ऐसे प्राप्त हुए है, जिससे यह प्रतीत होता है की इस राज परिवार शाखा का शासन इस प्रांत पर दो सौ वर्षों तक रहा|
भांदक में प्राप्त कृष्णराज प्रथम का ताम्रपत्र सबसे प्रचीन है,जो नान्दीपूरी द्वारी,आधुनिक नांदुर में लिखा गया था| इसमें सूर्य मंदिर के एक पुजारी को दान का उल्लेख है| राष्ट्रकूट वंश के शाशको के अंतिम समय में इस वंश का प्रभाव उतर की ओर बढ़ गया था, क्यूंकि अंतिम शासक कृष्ण तृतीय का नाम छिंदवाडा जिले के नीमकठी शिलालेख में भी आता है, तथा इसी की प्रशस्ति से युक्त एक शिलालेख मध्य प्रदेश की उतरी सीमा पर और मैहर की पश्चिम दिशा में लगभग 12 मिल दूर ज़ुरा नामक ग्राम से प्राप्त हुआ है|
मालवा का परमार वंश
परमार वंशीय शासक राष्ट्रकूट राजाओं के सामत थे| इस वंश के शासक हर्ष अथवा सियद द्वितीय ने 945 ई. में स्वयं को स्वंतत्र घोषित किया तथा नर्मदा के तट पर तत्कालीन राष्ट्रकूट शासक खोट्टिग को परस्त किया| वाकपति मंजू ने धार में मुंजसागर झील का निर्माण करवाया| मुंज की मृत्यु के पश्चात सिन्धुराज शासक बना| सिन्धुराज के बाद उसका पुत्र भोज गद्दी पर आसीन हुआ| यह जानकारी नागाई लेख से प्राप्त होती है|
भोजकाल में धारा नगरी विद्या तथा कला का महत्वपूर्ण केंद्र थी| यहाँ अनेक महल व् मदिर बनवाये गये| इसमें सरस्वती का मंदिर सर्वप्रमुख था| भोज ने भोपाल के दक्षिण–पूर्व में 250 वर्ग मील लंबी के झील का निर्माण करवाया,जो ‘भोजसर’ के नाम से प्रसिद्ध है|
चंदेल वंश
चंदेल वंश स्थापना 831 ई.में नन्नुक द्वारा की गयी| यशोवर्मन द्वारा राष्ट्रकुटों से कालिंजर का दुर्ग जीता तथा मालवा के चंदेल शासक को अपने अधीन कर लिया| यशोवर्मन ने ही खजुराहों में विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था|
यशोवर्मन के पश्चात उसका पुत्र धंग राजा बना, उसने कालिंजर पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर उसे अपनी राजधानी बनाया| इसके उपरान्त ग्वालियर पर अपना अधिकार जमाया| ढंग द्वारा खजुराहों में विश्वनाथ, वैद्यनाथ तथा पाशर्वनाथ के मंदिर बनवाए गये| गंड द्वारा जगदम्बी तथा चित्रगुप्त के मंदिर बनवाये गये| विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज व् त्रिपुरी के कलचुरी शासक गंगायदेव को हटाकर उसे पाने अधीन कर लिया|
विद्याधर की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र विजयपल तथा पौत्र देववर्मन के काल में चंदेल, कलचुरी–चेदी वंशी शासको जैसे गंगायदेव व् कर्ण की अधीनता स्वीकार करते थे| इन दोनों के उपरांत कितिवर्मन इस वंश का शासक बना, जिसने चेदी नरेश कर्ण को पराजित कर अपने प्रदेश को स्वंतत्र कर लिया| इसका उल्लेख अजयगढ़ तथा महोबा से प्राप्त चंदेल लेख से होता है| इस वंश का अंतिम शासक परमादिर्र्देव था| कालिंजर के युद्ध में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा पराजित हुआ तथा परमादिर्र्देव की मृत्यु हो गयी| परमादिर्र्देव के यहाँ आल्हा तथा उदल नाम के वीर दरबारी थे|
कलचुरी वंश
मध्य प्रदेश में कलचुरी नाम जनश्रुतियों, लेखों तथा मूर्तियों के द्वारा सर्वविदित है| मध्य प्रदेश के उतरीभाग काल की अगणित मुतियाँ बिखरी पड़ी है| जबलपुर,दमोह,कटनी तथा होशंगाबाद जिलों में एसा गाँव नहीं है,जो इस काल की कला में अछुता हो| कलचुरी राजवंश की दो शाखाएं थी:
1.त्रिपुरी 2. रतनपुर
इस वंश के प्रथम शासक कोक्क्ल ने 9 वीं शताब्दी इस्वी के अंतिम के काल में जबलपुर के उतर की ओर फैले हुए डाहल नामक प्रदेश पर विजय प्राप्त कर उस क्षेत्र को अपने 18 पुत्रों में बाँट दिया| सबसे बड़ा पुत्र त्रिपुरी का शसक हुआ तथा बिलासपुर का पाशर्ववर्ती पुत्र के भाग में आया| प्राप्त लेखों में त्रिपुरी शाखा की राजधानी त्रिपुरी थी| कलचुरी वंश के प्रारभिक राजाओं के लेख मुख्यत: विंध्य प्रदेश के रीवा राज्य तथा कटनी,दमोह जैसे में जो मध्य प्रदेश की उतरी सीमा पर है| इससे कलचुरी वंश का सुव्यवस्थित परिचय प्राप्त होता है| अधिकांश कलचुरी कन्याओं का विवाह राष्ट्रकूट वंश में हुआ था| इस वंश की राज–महिर्षियों के नाम है– अल्हण देवी,नोहला देवी, घोसला देवी आदि|
कलचुरी वंश का सबसे प्रतापी शासक कर्ण था| उसके शासन काल में कलचुरी सम्राज्य का भौगोलिक विस्तार अधिक था| कर्ण के सम्राज्य की सीमा अंतर में प्रयाग, कौशाम्बी, वीरभूम तथा बनारस तक पहुंच गयी थी| राजशेखर का ‘कर्मपुरमंजरी’ नामक प्रसिद्ध नाटक कलचुरी दरबार के प्रोतसाहन से ही रचा गया था|